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    चिंता: 1980 के बाद हिंद महासागर में नाइट्रोजन प्रदूषण दोगुना

    mahasagar

    1980 के बाद भारत में मानवीय गतिविधियों से नाइट्रोजन प्रदूषण दोगुना हो गया है। साथ ही, बांग्लादेश और म्यांमार के तटीय क्षेत्रों में भी नाइट्रोजन जमाव में काफी वृद्धि हुई है।

    फ्रंटियर्स इन मरीन साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में विश्लेषण किया गया कि दक्षिण एशिया में वायु प्रदूषण समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को कैसे प्रभावित कर रहा है। विशेष रूप से इस पर ध्यान दिया गया है कि जीवाश्म ईंधन जलाने और कृषि गतिविधियों से निकलने वाली नाइट्रोजन उत्तरी हिंद महासागर को किस हद तक प्रभावित कर रही है। फ्रांस के सोरबोन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने यह अध्ययन किया और पाया कि इससे महासागर की जैविक उत्पादकता प्रभावित हो रही है। हालांकि, शोधकर्ताओं ने पाया कि महासागर में उर्वरक जैसी प्रक्रियाएं नाइट्रोजन जमाव के प्रभाव को संतुलित कर सकती हैं। विशेष रूप से मध्य अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के पश्चिमी हिस्सों में जहां महासागर का जलस्तर धीरे-धीरे बढ़ा है वहां नाइट्रोजन का जमाव 70 से 100 फीसदी तक बढ़ चुका है।

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    जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

    महासागर में प्रारंभिक जैव उत्पादकता का तात्पर्य उन सूक्ष्म जीवों से है जो प्रकाश संश्लेषण या रासायनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से ऊर्जा का उपयोग करके कार्बनिक पदार्थों का निर्माण करते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के तापमान में वृद्धि हुई है, जिससे जल स्तर बढ़ा और पानी की घनत्व-आधारित परतें बन गईं।

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    धूल में मौजूद लोहे के कण

    मानसून भी इस जटिलता को और बढ़ा देता है। यह महासागर की सतह और गहराई के बीच पोषक तत्वों के प्रवाह को प्रभावित करता है, जिससे प्रारंभिक और द्वितीयक उत्पादकों को आवश्यक पोषक तत्व मिलते हैं। अरब क्षेत्र से उड़कर आने वाली धूल में मौजूद लोहे के कण भी इस प्रक्रिया को तेज करते हैं।

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    पोषक तत्वों की कमी देखी गई

    शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर मॉडलिंग और उपग्रह चित्रों की मदद से नाइट्रोजन जमाव और महासागर के तापमान बढ़ने के प्रभाव का विश्लेषण किया। पता चला है कि प्रारंभिक फाइटोप्लैंकटन (समुद्री शैवाल) और जूप्लैंकटन (समुद्री के सूक्ष्म प्राणी, प्लवक और सूक्ष्म समुद्री जीव) की उत्पादकता के कुछ स्थानों पर तेजी से वृद्धि हुई, वहीं कुछ क्षेत्रों में पोषक तत्वों की कमी देखी गई।

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    विशेष रूप से पश्चिमी अरब सागर में 100 मीटर से नीचे कार्बन के अधिक होने की पुष्टि हुई, जबकि दक्षिण-पूर्वी अरब सागर और मध्य बंगाल की खाड़ी में उत्पादकता सबसे कम रही। इन क्षेत्रों में समुद्र के गर्म होने के कारण पोषक तत्वों की आपूर्ति सीमित हो गई, जिससे नाइट्रेट की गहराई बढ़ गई।





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