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    कश्मीर में 1989-90 में हुई पंडितों की बड़े पैमाने पर हत्याओं और पलायन के बाद जब भी इन्होंने वापस घाटी में लौटना चाहा, उन्हें मार दिया गया। इतना ही नहीं, कश्मीरी पंडित की हत्याओं के केस ही दर्ज नहीं हुए।

    दबाव बनाकर जो केस दर्ज भी हुए, उनकी चार्जशीट आज तक नहीं बन सकी है।

    यही वजह है आज तक एक भी मामले में गुनाहगारों को सजा नहीं हो सकी।

    1998 में वापसी की राह खोलने पहुंचे 23 कश्मीरी पंडितों को मार दिया

    25 जनवरी 1998 को कश्मीरी पंडितों का प्रतिनिधिमंडल घाटी में लौटने की संभावनाएं टटोलने श्रीनगर पहुंचा था।

    तब मुस्लिम समुदाय की मेहमाननवाजी से लगा था कि कश्मीरी पंडित जल्द घर लौट आएंगे, लेकिन रात में गांदरबल के वंधामा में सेना की वर्दी में आए आतंकियों ने 23 कश्मीरी पंडितों की हत्या कर दी।

    हिंदुओं के इस उजड़े मोहल्ले में रह रहीं बुजुर्ग महिला बताती हैं, ‘वो पवित्र शब-ए-कद्र की रात थी।

    सभी 23 कश्मीरी पंडित हमारे लिए अनमोल थे। सामने वाले घर की तरफ इशारा करते हुए वे कहती हैं, ‘यह घर डॉ. मोती लाल का था।

    आधी रात में भी वे हमारा इलाज करने के लिए तैयार रहते थे।’

    इस घटना के बाद मुख्यमंत्री ने ही कहा- वापसी संभव नहीं

    उस घटना को कवर कर चुके एक पत्रकार बताते हैं- ‘घटना के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला पहुंचे।

    उन्होंने लश्कर का हाथ बताया। साथ ही कहा- कश्मीरी हिंदुओं के वापसी की संभावना नहीं है।’

    रक्षा मंत्रालय ने भी कहा कि एक दर्जन विदेशी आतंकियों ने नेताओं के साथ संबंधों के कारण इसे अंजाम दिया।

    13 मार्च 2000 को सेना ने हिज्बुल कमांडर हमीद उर्फ बॉम्बर खान को मार गिराया।

    उसे कश्मीरी पंडितों की हत्याओं का मास्टरमाइंड बताया गया।

    ऐसे में सवाल उठते रहे हैं कि विदेशी आतंकियों को किस आधार पर जिम्मेदार ठहराया गया।

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