पॉलिटिकल ड्रामा वेब सीरीज ‘तांडव’ अमेजॉन प्राइम पर रिलीज हो चुकी है। लंबे समय से चल रहा दर्शकों का इंतजार तो खत्म हुआ है, लेकिन सब्र का फल बहुत मीठा नहीं रहा है। फिल्म की कहानी पूरी तरह से राजनीति के तिकड़मों और अलग-अलग पक्षों के दांवपेचों के इर्द-गिर्द घूमती है। यदि आप राजनीति में रुचि रखते हैं और उससे जुड़ी फिल्में देखते रहे हैं तो यह आपके लिए अच्छी सीरीज हो सकती है। 9 एपिसोड्स में बंटी इस सीरीज के पहले ही एपिसोड में तिग्मांशू धूलिया के कैरेक्टर के सिमटने से उनके फैन्स निराश हो सकते हैं। यहां दो कहानी साथ हीं चलती है। एक तरफ दिल्ली की सत्ता यानी पीएम की कुर्सी के लिए लड़ाई चल रही है तो दूसरी तरफ यूनिवर्सिटी कैंपस के अंदर- भेदभाद, जातिवाद, पूंजीवाद, फासीवाद से आजादी के लिए।
बार लगातार देश के प्रधानमंत्री रहे देवकी नंदन यानी तिग्मांशु धूलिया चुनाव में अपनी पार्टी को तीसरी बार सत्ता में लाने के लिए तैयार दिखते हैं, लेकिन अचानक उनकी मौत हो जाती है। मीडिया से लेकर जनता तक का एक वर्ग उनके बेटे समर को दावेदार मानता है, लेकिन रिश्तों के जाल में फंसे समर इस पद को ठुकरा देते हैं। इस फैसले से सभी हैरान हो जाते हैं। यहां पक्ष और विपक्ष के बीच नहीं, बल्कि पार्टी के बीच राजनीतिक उथल-पुथल शुरू हो जाती है। प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए कई दावेदार खड़े हो जाते है। लेकिन इस निर्मम रास्ते पर जीत किसकी होगी, यही सवाल पूरी सीरिज को आगे बढ़ाता है।
दूसरी तरफ समानांतर तौर पर विवेकानंद नेशनल यूनिवर्सिटी की कहानी चल रही है। नाम भले वीएनयू कर दिया है, लेकिन ऐसा लगता है कि कथानक जेएनयू के हिसाब से बुना गया है। यहां किसान आंदोलन के साथ खड़ा होकर युवा छात्र नेता शिवा शेखर (मोहम्मद जीशान अय्यूब) रातोंरात सोशल मीडिया संसेशन बन जाता है। उसके भाषण की गूंज प्रधानंत्री कार्यलय तक भी पहुंचती है। वह राजनीति में नहीं उतरना चाहता, लेकिन इस दलदल में गहरे उतरता है। आगे चलकर दोनों कहानी अलग होकर भी आपस में इस तरह जुड़ जाती है कि शिवा भी भौंचक रह जाता है। और यही है राजनीति का तांडव।