रंगों और रवानगी का शहर दिल्ली! चौड़ी सड़कों पर फर्राटे से दौड़ती गाड़ियां। बत्ती का रंग बदलते ही एक से दूसरे पार दौड़ते लोग। इस तेजी के बीच एक चेहरा ऐसा है, जो सड़क किनारे ठिठका रहता है। इस इंतजार में कि कोई हाथ थामे तो सड़क पार हो सके। शहर-ए-दिल्ली के रंग और रौनक से अलग इनकी दुनिया में अंधेरा है। सिर्फ अंधेरा! वे सब कुछ कर सकते हैं, सिवाय देखने के।
यशवंत यादव ऐसा ही एक चेहरा हैं। 26 साल के यशवंत से जब मैं मिलने पहुंची, जो पहली बात नोटिस की, वो था उनका घर। उत्तर-पूर्व दिल्ली की बेहद घनी बस्ती बुराड़ी में दो कमरों के फ्लैट में दीवारों से या तो पलस्तर उखड़ रहा था, या फिर जहां साबुत था, वहां दीवार एकदम खाली। कहीं भी कोई पोस्टर, वॉलपेपर या सजावट का सामान नहीं। यहां तक कि घड़ी भी नहीं।
मैं अचकचा जाती हूं, लेकिन ये न देख सकने वालों की दुनिया है। उनकी आंखों की ही तरह सूनी और स्याह। हम जैसों की नजरें यहां फिट नहीं बैठतीं।
बेरंग दीवारों के बीच बैठे यशवंत खुद कहते हैं- जब भी बाहर से कोई दोस्त आता है, मैं सोचता हूं कि घर को थोड़ा सजाया जाए। कई बार अपनी पढ़ने की टेबल पर कुछ तस्वीरें लगाने की सोची, लेकिन अब तक कुछ हो नहीं सका। मैं सिर्फ ये समझ पाता हूं कि नल ठीक चल रहा हो, दरवाजा अच्छी तरह बंद होता हो और कपड़ों-किताबों के लिए अलमारियां हों। इसके अलावा दिख सकने वाली चीजों पर हमारा खास ध्यान नहीं जाता।