मैं 1947 का हिन्दुस्तान बोल रहा हूं। 1 जनवरी से 15 अगस्त 1947 के बीच हिन्दुस्तान में जो भी हुआ, वह इतिहास के पन्नों में अमर हो गया। 15 कहानियों की इस सीरीज की तीसरी कड़ी में आज जानिए, रजवाड़ों और रियासतों में उस वक्त कैसी बेचैनी थी और माउंटबेटेन के भारत आने के बाद बंटवारे की पटकथा लिखनी कैसे शुरू हुई…
मार्च आते आते राजे-रजवाड़े-निजामों-नवाबों के चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगी थीं, लेकिन उनकी प्रजा के चेहरे पर मुक्ति का उल्लास छलक रहा था। अंग्रेज अफसरों से अपनी बेहतरी की आस लगाए बैठे इनमें से कई रजवाड़ों और रियासतों के अलम्बरदारों ने बंटवारे की जद्दोजहद से खुद को अलग कर रखा था।
हैदराबाद के निजाम इस जुगत में लगे थे कि किसी भी तरह उनका सिंहासन बचा रहे। हालांकि, दिल्ली, पटना, लखनऊ और कलकत्ता के साथ-साथ मेरे कई शहरों-गांवों में अजीब सी बेचैनी और छटपटाहट बढ़ती जा रही थी। बंगाल के बाद मार्च की शुरुआत में ही बिहार दंगों की आग में जल उठा था और गांधीजी वहां पहुंच गए थे। तारीख थी-5 मार्च 1947, बापू कांग्रेसी नेताओं के रवैए से नाराज थे। वे चाहते थे कि कांग्रेसी जगह-जगह हो रहे दंगों से खुद को अलग करें।