नई दिल्ली – सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (अाईपीसी) की धारा 377 के एक हिस्से को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। आईपीसी में 1861 में शामिल की गई धारा 377 समान लिंग वालों के बीच शारीरिक संबंधों को अपराध मानती थी। इसमें 10 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान था। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अपने फैसले में कहा कि दो बालिग एकांत में आपसी सहमति से संबंध बनाते हैं तो वह अपराध नहीं माना जाएगा। लेकिन बच्चों या पशुओं से ऐसे रिश्ते अपराध की श्रेणी में बरकरार रहेंगे।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
1) चीफ जस्टिक दीपक मिश्रा, जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने अपने फैसले में कहा कि समलैंगिक समुदाय को भी आम नागरिकों के बराबर अधिकार हासिल हैं।
2) बेंच ने कहा, ‘‘एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान करना सर्वोच्च मानवता है। समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखना बेतुका है। इसका बचाव नहीं किया जा सकता।’’
3) ‘‘इतिहास को लेस्बियन, गे, बायसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीर (एलजीबीटीक्यू) समुदाय को वर्षों तक पीड़ा, कलंक और डर के साए में रखने के लिए माफी मांगनी चाहिए।’’
4) ‘‘दूसरों की पहचान को स्वीकार करने के मामले में नजरिया और मानिसकता बदलनी चाहिए। लोगों को कैसा होना चाहिए, इस नजरिए की बजाय लोग जैसे हैं, उन्हें वैसे ही स्वीकार करने की मानसिकता होनी चाहिए।’’
5) ‘‘सबकी अपनी पहचान है। हर व्यक्ति को गरिमा से जीने का हक। सेक्शुअल रुझान प्राकृतिक है। इस आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।’’
6) ‘‘नैतिकता का सिद्धांत कई बार बहुलतावाद से प्रभावित होता है, लेकिन छोटे तबके को बहुल समाज के तरीके से जीने के लिए विवश नहीं किया जा सकता।’’
7) ‘‘निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है और 377 इसका हनन करता है। सरकार और मीडिया इस फैसले का भरपूर प्रचार करे, ताकि एलजीबीटीक्यू समुदाय को आगे से भेदभाव का सामना न करना पड़े।’’
8) ‘‘आजादी तभी पूर्ण होगी जब एलजीबीटीक्यू समुदाय को बराबरी के हक मिलेंगे। सामाजिक नैतिकता के नाम पर नैतिकता की बलि नहीं ली जा सकती। हमारे देश में सिर्फ संवैधानिक नैतिकता का वजूद है।’’
9) ‘‘धारा 377 के कारण एलजीबीटीक्यू सदस्य छुपकर और दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में रहने को विवश थे, जबकि दूसरे लोग यौन अधिकार का आनंद लेते रहे।’’
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का फैसला पलटा था : इस मसले को सबसे पहले नाज फाउंडेशन ने उठाया। उसने 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। दिल्ली हाईकोर्ट ने 2009 में समहति से समलैंगिक सबंधों को अपराध से बाहर कर दिया। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया। इसके बाद इस केस में रिट पिटीशन दायर की गई थी।
केंद्र ने मामले से खुद को अलग किया था : इस मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र ने धारा 377 पर अपना पक्ष रखने से इनकार कर दिया था। सरकार का कहना था कि यह कोर्ट ही तय करे कि धारा 377 के तहत बालिगों का समलैंगिक संबंध बनाना अपराध है या नहीं? हालांकि, केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया था कि समलैंगिक विवाह, संपत्ति और पैतृक अधिकारों जैसे मुद्दों पर विचार न किया जाए, क्योंकि इसके कई विपरीत परिणाम भी सामने आ सकते हैं।
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