चुनाव भी एक अजीब चीज है। पैसे बांटने पर प्रतिबंध है, लेकिन कर्जमाफी के वादों पर कोई रोक नहीं। नौकरी देने के वादे, बेरोजगारों को पैसा देने के वादे, ये सब क्या? आखिर वोटरों को लुभाने की ही तरकीबें तो हैं। इन पर बंदिशें क्यों नहीं लगतीं? सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को मुफ्त के वादों पर अंकुश लगाने के लिए तुरंत एक विशेषज्ञ समिति बनाने को कहा है। साथ ही चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और सभी दलों से भी सुझाव मांगे गए हैं।
पिछली सुनवाई जब अप्रैल में हुई थी तो चुनाव आयोग ने कहा था कि पार्टियों को वादों से रोकना उसका काम नहीं है। उन वादों पर यकीन करना, न करना, उन्हें सही या गलत मानना जनता के विवेक पर निर्भर है। अब जनता ही यह सब समझती तो फिर ये मुफ्त की रेवड़ियां बांटने वाले जीतते ही क्यों?
समझ से मतलब यहां यह है कि लोभ-लालच से कौन बचा है भला? जो पार्टियां मुफ्त के वादे करती फिरती हैं, वे भी तो यह सब वोट के लालच के वशीभूत होकर ही कर रही होती हैं। फिर जनता का क्या दोष?