• Mon. Dec 23rd, 2024

    छत्तीसगढ़ में बस्तर के एक आदिवासी युवक का डॉक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया है। युवक के पिता को सलवा जुडूम के समय नक्सलियों ने मार दिया। पिता के सपने को साकार करने पैसे जमा कर जब डॉक्टरी की पढ़ाई करने विदेश गया, तो कोरोना ने आर्थिक चोट पहुंचाई। मंत्री, नेताओं से मदद मांगी, किसी ने नहीं सुनी। हालात ने डॉक्टर की जगह उसे मजदूर बनने पर विवश कर दिया। युवक अब अब गांव-गांव में घूम-घूमकर मजदूरी कर अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहा है।

    युवक प्रकाश गोटा बीजापुर जिले के भैरमगढ़ ब्लॉक के फरसेगढ़ गांव का रहने वाला है। प्रकाश के पिता सलवा जुडूम के नेता और जनपद पंचायत सदस्य थे। जो अपने गांव में विकास चाहते थे। छत्तीसगढ़ नक्सलियों ने साल 2012 में उनकी हत्या कर दी। प्रकाश उस समय जगदलपुर के नर्सिंग कॉलेज में पढ़ाई कर रहा था। पिता की मौत के बाद घर में ट्रैक्टर से खेती-किसान का काम कर थोड़ी बहुत आमदनी हो रही थी, जिससे नर्सिंग कॉलेज में पढ़ाई का खर्च निकल रहा था। लेकिन, नक्सलियों ने ट्रैक्टर को जला कर आमदनी का एकमात्र सहारा भी छीन लिया। पैसों की तंगी की वजह से प्रकाश को साल 2013 में अंतिम सेमेस्टर में नर्सिंग की पढ़ाई छोड़नी पड़ी।

    छत्तीसगढ़ में बस्तर के एक आदिवासी युवक का डॉक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया है

    खेती-किसानी का काम कर जमा किए पैसे, फिर गया विदेश
    प्रकाश ने बताया कि, छत्तीसगढ़ जब नक्सलियों ने ट्रैक्टर में आग लगाई तो उसके साथ डॉक्टर बनने के अरमान भी जल गए थे। मुझे डॉक्टर बनते देखना पिता का सपना था, इसलिए मैंने हिम्मत नहीं हारी। खेती किसानी का काम किया। कड़ी मेहनत से करीब 3-4 सालों में 15 से 20 लाख रुपए कमाए। पैसों को इकट्ठा किया और साल 2016-17 में MBBS की पढ़ाई करने किर्गिस्तान चला गया। सब कुछ ठीक चल रहा था। , अचानक कोरोना महामारी की वजह से अपने देश लौटना पड़ा।

    10 दिनों तक गुजरात में और 20 दिनों तक बीजापुर के एक होटल में आइसोलेट था।

    यहां बहुत पैसे लग गए थे।

    विदेश से लौटा तो लोग देखकर भागने लगे
    जब घर आया तो जिन लोगों को मैंने खेती-किसानी का काम करने जिम्मा दिया था वे लोग मुझे देखकर भाग गए। कोरोना की दहशत इतनी थी कि उन्हें लगा कि मैं विदेश से कोरोना बीमारी साथ लेकर आया हूं।

    इस वजह से सभी ने काम छोड़ दिया।

    घर पर भी कोई नहीं आता था। ऐसे में फिर से घर की जिम्मेदारी उठानी थी।

    जो पैसा इकट्ठा कर रखे थे वह घर खर्च में चले गए।

    कुछ महीनों तक ऑनलाइन क्लास ली।

    जब अंतिम साल के लिए फीस जमा करने की बारी आई तो जेब खाली थी।

    कॉलेज ने बैक लगा दिया।

    पैसे नहीं होने की वजह से पढ़ाई नहीं कर पाया और पिछले साल भर से घर पर हूं।

    नक्सल हिंसा पीड़ित होने के बाद भी परिवार से किसी को नौकरी नहीं मिली।

    Share With Your Friends If you Loved it!