Deepening crisis of carbon emissions यही कारण है कि सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले अमेरिका जैसे देश औद्योगिकीकरण और विकास को सर्वोपरि लक्ष्य बनाए हुए हैं। जब कभी विकास की ओर नई प्रगति होती है तो उसका सीधा असर पर्यावरण पर पड़ता है और यही असर एक आदत का रूप ले ले, तो दुष्प्रभाव की पूरी संभावना बन जाती है। ऐसे दुष्प्रभाव से समय रहते निपटा न जाए तो पृथ्वी और उसके जीव अस्तित्व को लेकर एक नई चुनौती से गुजरने लगते हैं।
आज हम धरतीवासी इसी संकट का सामना कर रहे हैं। वैश्विक स्तर पर बढ़ रहे कार्बन उत्सर्जन ने ऐसी ही चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। चिंता की बात यह है कि कार्बन उत्सर्जन को लेकर शिखर सम्मेलन, सेमिनार और बैठकों के दौर भले ही कितने मजबूती के साथ होते रहे हों, लेकिन इस मामले में लगाम लगाना तो दूर की बात है, इसका स्वरूप लगातार घातक रूप धारण करता जा रहा है।
मिस्र के शर्म अल-शेख में चल रहे संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (काप-27) में रखी गई रिपोर्ट से पता चला कि साल 2022 में वायुमंडल में चार हजार साठ करोड़ टन कार्बन डाई आक्साइड का उत्सर्जन हुआ। इतना सघन कार्बन उत्सर्जन यह संकेत करता है कि तापमान वृद्धि पर काबू पाना मुश्किल होगा। रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट हुआ कि 2019 में यही कार्बन उत्सर्जन तुलनात्मक रूप से थोड़ा अधिक था।
कोरोना महामारी के दौरान जब दुनिया के ज्यादातर देशों में पूर्णबंदी लगी थी, तब कार्बन उत्सर्जन में न केवल गिरावट आई थी, बल्कि आसमान कहीं अधिक साफ और प्रदूषण मुक्त देखने को मिला था। वायुमंडल में इतने व्यापक रूप से बढ़े कार्बन-डाइ आक्साइड से 2015 के पेरिस जलवायु समझौते में किए गए वादों और इरादों को भी झटका लगा है।
कार्बन उत्सर्जन को लेकर सभी देश बढ़-चढ़ कर अंकुश लगाने की बात करते रहे
दरअसल कार्बन उत्सर्जन को लेकर दुनिया के देशों में कभी एकजुटता देखने को मिली ही नहीं। विकसित और विकासशील देशों में इसे लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी व्यापक पैमाने पर रहे हैं। इतना ही नहीं, कार्बन उत्सर्जन को लेकर सभी देश बढ़-चढ़ कर अंकुश लगाने की बात करते रहे और हकीकत में नतीजे इसके विपरीत बने रहे। पृथ्वी साढ़े चार अरब साल पुरानी है और कई कालखंडों से गुजरते हुए मौजूदा पर्यावरण में है।
मगर बेलगाम कार्बन उत्सर्जन से इसके सिमटने की संभावनाएं समय से पहले की ओर इशारा कर रही हैं। पड़ताल बताती है कि पूर्व औद्योगिक काल (1850 से 1900) में औसत की तुलना में पृथ्वी की वैश्विक सतह के तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई, जिसके चलते पूरी दुनिया में कम-ज्यादा सूखा, जंगलों में आग और बाढ़ के परिदृश्य उभरने लगे। बीसवीं सदी में औद्योगिकीकरण तेजी से बढ़ा और इक्कीसवीं सदी में यह बेलगाम हो गया।
हालांकि दुनिया में कई देश ऐसे भी हैं जो कार्बन उत्सर्जन के मामले में तनिक मात्र भी योगदान नहीं रखते, मगर कीमत तो उन्हें भी चुकानी पड़ रही है। एक रिपोर्ट से पता चलता है कि साल 2021 में कुल कार्बन उत्सर्जन के आधे हिस्से में चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश शामिल थे। इस मामले में भारत का योगदान महज सात फीसद है, जबकि चीन इकतीस फीसद कार्बन उत्सर्जन करता है जो अपने आप में सर्वाधिक है। हालांकि भारत में साल 2022 में उत्सर्जन में छह फीसद की वृद्धि हुई है और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण कोयले का इस्तेमाल रहा।